Sunday, April 29, 2012

चाँद को आज मत छेड़ो

                                   भूल कर शिकवे गिले, आओ गले आज मिलें,
                                   थाम लो तुम हाथ मेरा, आओ चलो साथ चलें.

                                                रंग बिखरे हैं आज बागों में,
                                             आओ कुछ फूल जूड़े को चुन लें.
                                                गीत गाती हैं ये हवायें भी,
                                             आओ कुछ गीत प्यार के सुन लें.

                                   शिकायतें कल की, मिल के कल सुलझा लेंगे,
                                   ख़ुशनुमा आज है, क्यों न इसे मिलकर जीलें.

                                             रात अंधियारी आज न होगी,
                                             चाँद रुकने को आज सहमत है.
                                             नज़र ज़माने की न फ़िक्र करो,
                                             उसे तो प्यार से हमेशा नफ़रत है.

                            खेलने दो उंगलियाँ मेरी, गेसुओं को नहीं शिकायत है,
                            बंद करके स्वप्न मुट्ठी में, किसी नयी डगर पर निकलें.

                                           ख़्वाब जागे हैं आज फिर दिल में,
                                           अश्क बनकर क्यों इनको ढलने दें.
                                           आज जब डगर खुशनुमां इतनी,
                                           क्यों न कदमों को आज  चलने दें.

                            चाँद को आज मत छेड़ो, आगोश चांदनी में खुश है,
                            वक़्त होगा कभी तो पूछेंगे, अंधेरी रात में कैसे निकलें.

                                                                        कैलाश शर्मा 

Thursday, April 26, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (दूसरी कड़ी)



  प्रथम अध्याय

(अर्जुन विषाद योग - १.३३-४७)

जिनके राज्य सुखों की खातिर
हम लड़ने को अड़े हुए हैं.
वे सब प्राण और संपत्ति तज,
युद्धस्थल में खड़े हुए हैं.  (१.३३)

पिता, पुत्र, आचार्य, पितामह,
श्वसुर, पुत्र, सम्बन्धी, भ्राता.
तीनों लोक राज्य यदि पाऊँ,
फ़िर भी मैं न वध कर पाता.  (१.३४-३५)

कैसे मुझको खुशी मिलेगी,
धृतराष्ट्र पुत्रों के वध से.
पाप लगेगा मुझे स्वयं ही,
अताताइयों के इस वध से.  (१.३६)

हनन कौरवों का मधुसूदन.
मुझको उचित नहीं लगता है.
इष्ट बंधुओं का वध करके,
कोई सुखी क्या रह सकता है?  (१.३७)

दुर्योधन कुल नाश को तत्पर,
राज्य लोभ से अंधे हो कर.
उसको पाप नजर न आता,
बुद्धि, विवेक से वंचित हो कर.  (१.३८)

देख रहे हैं हम प्रत्यक्ष में
इसका दोष जो होगा हम पर.
कैसे हों निवृत्त पाप से
क्यों विचार करें न मिलकर.  (१.३९)

कुल का क्षय जब हो जाता,
कुल धर्म परम्परायें भी मिट जातीं.
हो जाता जब नाश धर्म का,
शेष वंश में अधर्म की छाया आती.  (१.४०)
                                   
जब अधर्म छा जाता जग में,
कुल स्त्री दूषित हो जातीं.
कुल स्त्री के दूषित होने पर,
जन्म वर्णसंकर संतानें पातीं.  (१.४१)

कुलघातियों व उनके कुल को
ये संतान नरक का कारण होतीं.
पिंड और जलदान क्रिया बिन,
पितर पतन का कारण होतीं.  (१.४२)

हे माधव इन दोषों के कारण,
कुल, जाति धर्म नष्ट हो जाते.
जिनके कुलधर्म नष्ट हो गये,
उनके पितर नरक में जाते.  (१.४३-४४)

केवल राज्यसुखों के कारण
इतना पाप जा रहे करने.
बंधुजनों का वध करने का
कैसे सोच लिया था हमने.  (१.४५)

न प्रतिकार करूँगा कोई
यदि सशस्त्र दुर्योधन आये.
मेरे लिये ये होगा हितकर
वह मेरा यदि वध कर जाये.  (१.४६)


संजय
शोक व्यथित होकर के अर्जुन
धनुष बाण सब अपने तज कर.
व्याकुल चित से युद्ध भूमि में
बैठ गया आ कर के रथ पर.  (१.४७)

**पहला अध्याय समाप्त**




                        .....क्रमशः

 कैलाश शर्मा

Wednesday, April 25, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता - भाव पद्यानुवाद


श्रीमद्भगवद्गीता का सन्देश सदैव ही जन मानस को प्रभावित करता रहा है और कई बार मन में विचार आया कि इसके भावों को सरल हिंदी पद्य में प्रस्तुत करूँ. लेकिन गीता के महत ज्ञान को अपने शब्दों में ढालने का साहस नहीं जुटा पाया. प्रभु की प्रेरणा से अंतर्मन से आवाज आयी कि अपना कर्म करना तुम्हारा दायित्व है, परिणाम के बारे में मत सोचो. मेरा प्रयास  श्रीमद्भगवद्गीता के भावों को सरल और सहज हिंदी पद्य के रूप में प्रस्तुत करने का है. कितना सफल हो पाता हूँ इसका निर्णय तो प्रभु की इच्छा और आप के प्रोत्साहन पर निर्भर है.
         प्रथम अध्याय
(अर्जुन विषाद योग - १.३२)


धृतराष्ट्र :

धर्मक्षेत्र इस कुरुक्षेत्र मेंएक दूसरे के सम्मुख,
मेरे पुत्र और पांडवहैं दोनों लडने को तत्पर.
देख नहीं सकतीं मेरी आँखेंक्या वहां हो रहा,

संजय वह दिखलाओतुम मेरी आँखें बनकर.  (१.१)

संजय: 
गुरु द्रोण से बोला दुर्योधन,
देख व्यूह रचना पांडव की.
द्रुपद पुत्र ने व्यूह रचा है, 
अक्षौहिणी सेना पांडव की.  (१.२-३)

भीमसेन और अर्जुन जैसे
इस सेना में श्रेष्ठ वीर हैं.
युयुधान, विराट, द्रुपद भी
उन्ही समान ही शूरवीर हैं.  (१.४)

धृष्टकेतु, चेकितान, शैब्य
जैसे योद्धा महान हैं.
कुन्तिभोज व पुरुजित भी,
काशी नरेश वीर्यवान हैं.  (१.५)

वीर युधामन्यु, अभिमन्यु,
वीर्यवान उत्तम मौजा भी.
सब ही हैं श्रेष्ठ महारथी
पाँचों पुत्र द्रौपदी के भी.  (१.६)

हे द्विज श्रेष्ठ! हमारे योद्धा
अब उनको भी आप जानिये.
वे हैं मेरी सेना के नायक,
उनके भी हैं नाम जानिये.  (१.७)

आप, भीष्म व कृपाचार्य हैं,
कर्ण और अश्वत्थामा भी हैं.
सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा
और विकर्ण सेना नायक हैं.  (१.८)

मेरे लिये प्राण दे सकते
ऐसे यहाँ अन्य योद्धा हैं.
शस्त्रों में हैं पूर्ण निपुण
व युद्धकला के ज्ञाता हैं.  (१.९)

भीष्म और ऐसे वीरों से
अपनी असीम सेना है रक्षित.
भीम संरक्षित होने पर भी
पांडव सेना लेकिन सीमित.  (१.१०)

सैन्यव्यूह के सब द्वारों पर
अपने अपने स्थानों पर डट कर.
करें भीष्म पितामह की रक्षा
आप सभी सब ओर से मिलकर.  (१.११)

परम प्रतापी भीष्म पितामह
दुर्योधन मन हर्षित करके.
संख बजाया ऊंचे स्वर में
भीषण सिंहनाद है करके.  (१.१२)

उसके बाद अचानक सबने
अपना अपना शंख बजाया.
बजने लगे नगाड़े, दुन्दुभि, 
भेरी, तुरही से जग थर्राया.  (१.१३)

श्वेत अश्व वाले रथ पर 
बैठ कृष्ण अर्जुन जब आये.
हृषिकेश, अर्जुन ने अपने
दिव्य शंख थे वहां बजाये.  (१.१४)

ह्रषीकेश ने ‘पांचजन्य’,
अर्जुन ने ‘देवदत्त’ बजाया.
वृकोदरा भीम ने अपना
‘पौण्ड्र’ महाशंख बजाया.  (१.१५)

कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने भी
‘अनन्तविजय’ शंख बजाया.
‘सुघोष’ शंख नकुल द्वारा 
‘मणिपुष्पक’ सहदेव बजाया.  (१.१६)

अपने अपने शंख बजाये,
महा धनुर्धर काशिराज ने.
सात्यकि व धृष्टद्युम्न ने
और विराट व शिखंडी ने.  (१.१७)

हे राजन! राजा द्रुपद ने
और द्रौपदी के पुत्रों ने.
अपने अपने शंख बजाये,
महाबाहु अभिमन्यु ने.  (१.१८)

सभी महारथियों ने जब 
अपने अपने शंख बजाये.
गूंजे तुमुल घोष से नभ थल,
कौरव पुत्र ह्रदय थर्राये.  (१.१९)
                                    
धृतराष्ट्र के सब पुत्रों को
युद्धभूमि में खड़े देखकर.
अर्जुन ने अपना धनुष उठाया
शस्त्रास्त्र चलने को तत्पर.  (१.२०)

हे राजन! तब ह्रषीकेश से
अर्जुन ने अनुरोध किया ये.
रथ को दोनों सेनाओं के
कृपया मध्य खड़ा कीजिये.  (१.२१)

अर्जुन
पहले इन सबको मैं देखलूँ
आये लेकर युद्ध कामना.
कौन कौन से योद्धा इनमें
जिनसे मुझे युद्ध है करना.  (१.२२)

जो धृतराष्ट्र पुत्र दुर्बुद्धि
दुर्योधन के हित को आये.
मैं उनको देखना चाहता
युद्धिभूमि में हैं जो आये.  (१.२३)

संजय
हे राजन! अर्जुन कहने पर
माधव ने उस उत्तम रथ को.
मध्य में दोनों सेनाओं के
लाकर खड़ा कर दिया उसको.  (१.२४)

भीष्म, द्रोण व राजाओं के
सम्मुख रथ स्थापित करके.
एकत्र कौरवों को तुम देखो
श्री कृष्ण बोले अर्जुन से.  (१.२५)

 रथ पर होकर खड़े मध्य में, 
कौरव दल पर नजर उठायी.
गुरु, आचार्य, पितामह के संग, 
खड़े पुत्र, पौत्र, हितैषी, भाई.  (१.२६)

देख बन्धु बांधव को सम्मुख,
श्वसुर और हितैषी जन को.
देख इष्ट बंधुओं को युद्धोधत
अर्जुन बोले श्री कृष्ण को.  (१.२७)

बंधु बांधव खड़े देख कर
अर्जुन करुणायुक्त हो गये.
होकर के अवसाद से पूरित,
वे ग्लानि से व्यथित हो गये.  (१.२८)

अर्जुन
कृष्ण देख इनको युद्धोद्दत,
हाथ पैर हैं शिथिल हो रहे.
सूख रहा अवसाद से मुंह है
कम्पित हैं मेरे गात हो रहे.  (१.२९)

फिसल रहा गांडीव हाथ से
और त्वचा संतप्त हो रही.
कठिन खड़ा होना पैरों पर,
मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही.  (१.३०)
                                                     
नजर अपशकुन आते मुझको,
स्वजन मार कर क्या हित होगा?
नहीं चाहता विजय, राज्य सुख,
क्या सुख इनको पाकर के होगा?  (१.३१ )

मुझको नहीं विजय की इच्छा.
नहीं राज्य सुख भोग कामना.
राज्य, भोग और जीवन से
माधव कहो हमें क्या करना.  (१.३२)

                       .........क्रमश:

कैलाश शर्मा 

Tuesday, April 17, 2012

कहाँ खो गयी संतुष्टि ?

कहाँ खो गयी संतुष्टि,
कहाँ गये वे दिन 
जब होती थी एक रोटी
बाँट लेते एक एक टुकड़ा
और नहीं सोता कोई भूखा.


लेकिन आज 
भूख रोटी की गयी है मर,
लगी है अंधी दौड़ 
दौलत के पीछे
कुचलते सब रिश्तों को
अपने पैरों तले.


ईमानदारी बन कर रह गयी बेमानी
और छुपाती मुंह शर्मिन्दगी से,
भ्रष्टाचार और काला धन 
बन कर रह गए सिर्फ़ एक मुद्दा
बहस और अनशन का.


यह तो हाल है 
जबकि पता है 
क़फ़न में ज़ेब नहीं होती
और मुट्ठी भी खाली होती
अंतिम सफ़र में.


क्या होता हाल 
इन्सान के लालच का
अगर ऊपर भी खुल जाती
कोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.


कैलाश शर्मा 

Wednesday, April 11, 2012

हाइकु

   (१)
अकेला मन
रिश्तों का समंदर
ढूंढे साहिल.


   (२)
चलते रहे
बिना परवाह के
मिली मंज़िल.


   (३)
कठिन राह
सपने भी अधूरे
रुकना नहीं.


   (४)
जीवन राह
गहन है अँधेरा
दीप जलाओ.


   (५)
लंबा सफ़र
सुनसान डगर
कितना चलें.
  
   (६)
राह थी सही
लिया गलत मोड़
भटक गये.


  (७)
चलें तो सही
मिल जायेगी कभी
नयी मंजिल.


कैलाश शर्मा

Tuesday, April 03, 2012

दर्द गरीबी का

बनाते महल गैरों के, न खुद को झोंपड़ी मिलती,
न जी पाते हैं जीवन को, न सुकूं से मौत ही मिलती.

महल बनाये जाने जाने कितने, खून पसीना एक कर दिया,
लेकिन मरने पर भी पूरा कफ़न न पाया जग में तूने.
बन कर विश्व रचियता तूने इस जग का निर्माण किया था,
लेकिन मरने पर भी कोई स्मारक न पाया तूने.

पहने फटे वस्त्र को तूने जिस पल देखा होगा उसको,
देख विवशता अपने दिल की तूने अश्रु बहाये होंगे. 
काश अश्रु जो होते मोती, फिर क्या तेरी लाचारी थी,
देख क्षुधित बालक को दिल के दर्द और उभर आये होंगे.

क्या जीने का अर्थ उसे जो उनके पेट न भरने पाये, 
लेकिन केवल ममता ही तो पेट नहीं भर सकती उनका.
केवल प्यार भरे चुम्बन से शांत नहीं हो सकते बालक,
उनके लिए चाहिये रोटी और वस्त्र उस नन्हे तन का.

मरने पर तो लाश जानवर की भी जग में बिक जाती है,
लेकिन मानव का कोई भी मूल्य नहीं होता इस जग में.
मूल्य अगर होता कुछ भी तो कौन हिचकता बिक जाने से,
जब की भूखे पेट तड़पते बालक होते उसके पथ में.

जीवन और मृत्यु दो पहिये कहते हैं इस मानव रथ के,
लेकिन जीवन नहीं, मृत्यु ही उनके लिए रही श्रेयस्कर.
पुत्र बना कर छिपा लिया उसने उसको जीवन कंटक से,
लेकिन जीवन ने उसको प्रतिपल मारी थी ठोकर हंसकर.

मृत्यु शांति दायक इस जग में, लेकिन जीवन कोलाहल है,
चाहे कितनी भी निष्ठुर हो, मृत्यु मगर फिर भी सुखकर है.
मृत्यु तोड़ देती है नाता मानव का अभिशापित जग से,
जीवन देता अश्रु उम्र भर, इससे म्रत्यु कहीं  बेहतर है. 


(कॉलेज  जीवन में लिखी मेरी एक लम्बी कविता 'ताज महल और एक कब्र' के कुछ अंश)


कैलाश शर्मा